Tuesday, July 1, 2008

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रोज़ सुबह
उसके तकिये पर
कुछ सूखे ख्वाब मिलते हैं
सफ़ेद धब्बों की शक्ल में

वो रोज़ ग़िलाफ़ों को धोती है
धोकर धूप में सुखाती है
और फ़िर दिन-भर
अपने ख्वाब का इन्तज़ार करती है

आज का दिन भी खाली गया है...

आज फ़िर से उसकी रात
कमरे की छत से टंके हुये
रेडियम के चमकते सितारे देखते हुये कटेगी
आज की रात फ़िर से
उसकी बंद आंखों से
कुछ ख्वाब बहेंगे
और सुबह
तकिये पर
सफ़ेद धब्बों की शक्ल में मिलेंगे

11 comments:

Anonymous said...

Khubsurat !!!!!!!!! :)

Anonymous said...

वाह क्या ख्याल है.. बहुत उम्दा

Anonymous said...

yun hi hai...to aur bhi acchhha hai....

Anonymous said...

bina jikr ke aansoo ki baat....koi thahri hui jaise raat ki baat.....achchi hai...

Anonymous said...

आज की रात फ़िर से
उसकी बंद आंखों से
कुछ ख्वाब बहेंगे
और सुबह
तकिये पर
सफ़ेद धब्बों की शक्ल में मिलेंगे

बहुत खूब ...

Anonymous said...

khoobsoorat khyal..

likhte rahe..

Anonymous said...

ऐसा लगा जैसे गुलज़ार को पढ़ रहा हूँ.....बस सीधी दिल में उतर गई है......

Anonymous said...

इस युं ही पे इतने अच्छे भाव...क्या बात है जनाब.

Anonymous said...

kahanee kuch aage badhaaiye

Anonymous said...

bahut khoobsurat

Anonymous said...

आज फ़िर से उसकी रात
कमरे की छत से टंके हुये
रेडियम के चमकते सितारे देखते हुये कटेगी
आज की रात फ़िर से
उसकी बंद आंखों से
कुछ ख्वाब बहेंगे
और सुबह
तकिये पर
सफ़ेद धब्बों की शक्ल में मिलेंगे

Wah bhot khooooob....!