Thursday, March 19, 2009

ख्वाहिश



मैं चाहता हूं

तेरे उलझे हुए ये दिन
सुलझा दूं.

गीली आंखों में जो गुज़रती हैं
बेतरतीब-सी जो अब उगती हैं
तेरी रातों को
सलीके से उगा दूं, करीने से सजा दूं.

ये धूप का आधा टुकड़ा
अटका पड़ा है जो पर्दे में कहीं
तुझ तक खींच लाऊं
तेरे चेहरे पे बिखेर दूं.

कुछ रेशमी फ़ुहारें
कहीं पास से गुज़रें जो
रूख मोड़ दूं उनका
तेरे छत का मैं पता दूं.

खिले सूरजमुखी सी वो हंसी
छोड आई है तू जो बचपन में कहीं
ढूंढ लाऊं मैं वो कहीं से
तेरे होठों पे सजा दूं.

तेरी आंखों की नमी
झलक जाती है जो कोरों से कभी
भूल बैठी है वो शायद
उसे आने-जाने के सलीके सिखा दूं.

वो हरेक नक़्श
तेरे ग़म का जो सबब है
इक-इक कर के मिटा दूं.

मैं चाहता हूं.