Thursday, March 19, 2009

ख्वाहिश



मैं चाहता हूं

तेरे उलझे हुए ये दिन
सुलझा दूं.

गीली आंखों में जो गुज़रती हैं
बेतरतीब-सी जो अब उगती हैं
तेरी रातों को
सलीके से उगा दूं, करीने से सजा दूं.

ये धूप का आधा टुकड़ा
अटका पड़ा है जो पर्दे में कहीं
तुझ तक खींच लाऊं
तेरे चेहरे पे बिखेर दूं.

कुछ रेशमी फ़ुहारें
कहीं पास से गुज़रें जो
रूख मोड़ दूं उनका
तेरे छत का मैं पता दूं.

खिले सूरजमुखी सी वो हंसी
छोड आई है तू जो बचपन में कहीं
ढूंढ लाऊं मैं वो कहीं से
तेरे होठों पे सजा दूं.

तेरी आंखों की नमी
झलक जाती है जो कोरों से कभी
भूल बैठी है वो शायद
उसे आने-जाने के सलीके सिखा दूं.

वो हरेक नक़्श
तेरे ग़म का जो सबब है
इक-इक कर के मिटा दूं.

मैं चाहता हूं.

Tuesday, July 1, 2008

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रोज़ सुबह
उसके तकिये पर
कुछ सूखे ख्वाब मिलते हैं
सफ़ेद धब्बों की शक्ल में

वो रोज़ ग़िलाफ़ों को धोती है
धोकर धूप में सुखाती है
और फ़िर दिन-भर
अपने ख्वाब का इन्तज़ार करती है

आज का दिन भी खाली गया है...

आज फ़िर से उसकी रात
कमरे की छत से टंके हुये
रेडियम के चमकते सितारे देखते हुये कटेगी
आज की रात फ़िर से
उसकी बंद आंखों से
कुछ ख्वाब बहेंगे
और सुबह
तकिये पर
सफ़ेद धब्बों की शक्ल में मिलेंगे

Saturday, June 28, 2008

बस यूं ही...


शाम का धुंधलका अभी फ़ैलना शुरु ही हुआ है. बारिश रुकी हुई है पिछले आधे घंटे से. बादलों की ओट से लुका छिपी खेलता गहरा नारंगी सूरज पूरे दिन का सफ़र खत्म कर डूबने को बेताब है. और मैं खामोश अपनी कुर्सी में धंसा अपने कमरे की इकलौती खिड़की से उसका डूबना देख रहा हूं. हाथ में William Dalrymple की City of Djinns है. आधी पढ़ चुका हूं. अच्छी किताब है.

बंगलोर का मौसम भी अब बदलना शुरु हो गया है. अब शाम की हवा में, बहुत थोड़ी ही सही, लेकिन हल्की-सी ठंड का एहसाह होता है. होठों पर शाम की चाय की हल्की सी तलब महसूस करता हूं. जी चाहता है, तुम्हें अभी आवाज़ लगाकर पुकारूं और चाय की फ़रमाईश करूं. अरे हां! तुम्हें तो ज़ोर से आवाज़ लगाकर बुलाने की भी ज़रुरत नही पड़ेगी. तुम भी तो वहीं होगी, खिड़की के पास ही. मुझे पता है तुम्हे खिड़की से बारिश देखना कितना पसंद है. और जब अभी बारिश रुकी हुई है, सारा मंज़र धुला धुला सा दिख रहा है. सामने के पेड़ पर नई पत्तियां आनी शुरू हो गई हैं. चाय की भीनी-सी खुशबू रसोइ से निकल कर धीरे धीरे चलकर मेरे पास आती है. तुम प्याला मेरी तरफ़ बढ़ाती हो और मैं प्याले के साथ तुम्हारी गोरी कलाई भी थाम लेता हूं.

'City of Djinns' फ़िर खोल ली है. कमरे में धीरे धीरे अंधेरा अपने पांव पसार रहा है. तुम होती तो कमरे की लाईट ऒन कर के अजीब सी निगाह से मुझे देखती. मेरे हाथों से किताब छीनकर टेबल पर रख देती और ज़ोर से (धीरे से कोइ बात तो तुम कहती ही नहीं हो, और वो भी तब, जब मैं तुम्हारे सामने हूं) कहती - ’इतनी रोमांटिक शाम में ये क्या अन-रोमांटिक सी बुक लिये बैठे हो. चलो ना! बाहर सड़क पर थोड़ी देर घूमते हैं.’ वैसे मैं भी बाहर जाना चाहता हूं लेकिन बैठा रहता हूं. चाहता हूं तुम मुझे पकड़ कर उठाओ जबरदस्ती ढकेलते हुये ले चलो...

उफ़्फ़!!! ये ख्यालों की बेलें भी बड़ी अज़ीब होती हैं. थोड़ी सी मन-माफ़िक़ हवा-पानी मिल जाये तो दिल के ज़मीन पर उग कर तुरंत ही पूरे ज़ेहन पे छा जाती हैं. फ़िर दिल और दिमाग, दोनों अलग-अलग जगह खड़े मिलते हैं. दिमाग के हर सवाल का दिल बस एक ही जवाब देता है - बस यूं ही.

काश! बस यूं ही...

और मैं चुपचाप अपनी कुर्सी में धंसा अपने कमरे की इकलौती खिड़की से सूरज का डूबना देख रहा हूं. आज वो भी उदास सा नज़र आ रहा है. शायद उसे भी पता है कि आज की शाम वो अकेला नहीं डूब रहा...

Thursday, June 19, 2008

अपनी ख़बर

पिछले कई दिनों से दिल में ये बात आ रही थी कि कुछ लिखूं अपने blog पर. असल में मेरा खुद के बारे में ये मानना है कि मैं एक अच्छा लिखने वाला (अपने लिये ’लेखक’ शब्द सर्वथा अनुपयुक्त लगता है) से कहीं ज्यादा बेहतर एक पाठक और एक श्रोता हूं. अपने मन की बातों और ख्यालों को शब्दों की शक्ल पहनाकर और सजा-संवार कर प्रस्तुत करने में मैं खुद को उतना सहज नहीं पाता. फ़िर भी, अपनी कमज़ोरियों को अच्छी तरह जानते हुये भी आज से कुछ लिखने का प्रयास शुरू कर रहा हूं.

जब blog पर लिखने के बारे में पहली बार सोचा तो सबसे पहले ये ख्याल ज़हन में आया कि blog का शीर्षक क्या रखूं. कई शब्द और शब्दों की लड़ियां ज़ेहन में घूम गये. तभी सहसा मुझे अपने जीवन की सबसे पहली पढ़ी आत्मकथा स्मरण हो आयी. पान्डेय बेचन शर्मा ’उग्र’ की आत्मकथा - ’अपनी खबर’. बहुत मुमकिन है कि आपमें से कईयों ने ’उग्र’ जी का नाम भी ना सुना हो. उनकी आत्मकथा पढ़ने तक मैनें भी बस उनका नाम ही सुना था, कोइ रचना नहीं पढ़ी थी. २००२-२००३ की बात है. उन दिनों इन्डिया टुडे ग्रुप साल में एक बार हिन्दी साहित्य विशेषांक प्रकाशित करते थे जिसमें समकालिन लेखकों और कवियों की कुछ बहुत ही अच्छी और चुनिन्दा रचनाएं होती थीं. २००४ या २००५ के बाद से मैनें बुक स्टौल्स पर ये विशेषांक ढ़ूंढ़नें की बहुत कोशिश की लेकिन नहीं मिलीं. इन्डिया टुडे ग्रुप वालों ने शायद अब इसे छापना बंद कर दिया है. शायद उन्हें भी हिन्दी साहित्य छापना निरर्थक लगने लगा है.

खैर, मैं बात ’अपनी खबर’ की कर रहा था. साहित्य विशेषांक के किसी अंक में कुछ समकालीन लेखकों से ५ सर्वश्रेष्ठ आत्मकथा चुनने और उसपर अपनी टिप्पणी देने को कहा गया था. उनमें जो ४ आत्मकथायें, जिन्हें सबसे ज्यादा लेखकों ने चुना था, वो थे - बच्चन की ’क्या भूलूं क्या याद करूं’, चर्ली चैप्लिन की आत्मकथा, महात्मा गांधी की ’माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ’ और ’उग्र’ की ’अपनी खबर’. इस लेख को पढ़ने के कुछ ही दिनों बाद मुझे ’अपनी खबर’ पढ़ने को मिली और तब से अब तक मैं उसे करीब १०-१२ बार पढ़ चुका हूं. पेपर बैक में एक बेहद पतली सी और छोटी सी किताब है जिसकी खासियत उसकी बेबाक़ी है. ’उग्र’ जी ने जिस निर्भिकता से अपने जीवन की सच्चाईयों को सबके सामने रखा है वैसा साहित्य में बहुत कम देखने को मिलता है. अपनी ज़िन्दगी और उसके गिर्द आने वाले लोगों के बारे में ’उग्र’ जी ने बिना किसी लोक-लाज और भय के परतें दर परतें खोली हैं.

यदि आपमें आत्मकथा पढ़ने की दिलचस्पी हो तो ये किताब जरुर पढ़ें. किताब की प्राईस करीब... इस किताब की मेरी खरीदारी भी कम रोचक नहीं है. मैं उस वक़्त पटना के बोरिंग कैनाल रोड में रहता था. हर साल की तरह पाटलिपुत्रा कोलोनी में बुक फ़ेयर (पुस्तक-मेला) लगा हुआ था. मैं मेले के खुलने के पहले दिन ही पहुंच गया. घूमते घूमते राज कमल प्रकाशन के स्टाल के चक्कर लगा रहा था कि बिलकुल आगे की क़तार में ’अपनी खबर’ सज़ी हुई दिखी. साहित्य विशेषांक में आत्मकथा पर पढ़ा लेख स्मरण हो आया और मैनें एक प्रति उठा ली और देखने लगा. एक आम भारतीय बेरोज़गार की तरह मैं भी मुख-पृष्ठ देखने के बाद सीधा उस जगह को ढ़ूंढ़ने लगा जहां किताब का दाम छपा हुआ करता है. दाम पढ़ा तो सहसा यक़ीन नहीं हुआ - रू ३.५० मात्र. मैने ये सोचकर कि कहीं उस प्रति में मिस-प्रिंट ना हो, दूसरी प्रति उठाकर देखी तो वहां भी रु ३.५० ही दिखा. मन में खुशी हुई दाम देखकर जो वाज़िब था. एक प्रति लेकर मैं बिलिंग काउंटर पर पहुंचा. बिलिंग करने वाले को भी थोड़ा आश्चर्य हुआ छपा दाम देखकर. कम्प्यूटर में थोड़ी बहुत छानबीन करने के पश्चात साहब ने मुझसे रु ३.५० लेकर किताब मुझे दे दी. किताब के साथ साथ उसने जो मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर डाली थी, उसका अर्थ मैं ५-६ दिन बाद जान पाया जब मेरा फ़िर से बुक फ़ेयर जाना हुआ और घूमते हुये फ़िर उसी स्टाल पर पहुंचा. आगे की कतार से ’अपनी खबर’ उठाई तो सहसा नज़र उसके दाम पर पड़ी. रु ३.५० की जगह एक स्टिकर लगाकर बड़ी सफ़ाइ से छापा गया था - मूल्य - रु ३५.०० मात्र.