Tuesday, July 1, 2008

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रोज़ सुबह
उसके तकिये पर
कुछ सूखे ख्वाब मिलते हैं
सफ़ेद धब्बों की शक्ल में

वो रोज़ ग़िलाफ़ों को धोती है
धोकर धूप में सुखाती है
और फ़िर दिन-भर
अपने ख्वाब का इन्तज़ार करती है

आज का दिन भी खाली गया है...

आज फ़िर से उसकी रात
कमरे की छत से टंके हुये
रेडियम के चमकते सितारे देखते हुये कटेगी
आज की रात फ़िर से
उसकी बंद आंखों से
कुछ ख्वाब बहेंगे
और सुबह
तकिये पर
सफ़ेद धब्बों की शक्ल में मिलेंगे