Saturday, June 28, 2008
बस यूं ही...
शाम का धुंधलका अभी फ़ैलना शुरु ही हुआ है. बारिश रुकी हुई है पिछले आधे घंटे से. बादलों की ओट से लुका छिपी खेलता गहरा नारंगी सूरज पूरे दिन का सफ़र खत्म कर डूबने को बेताब है. और मैं खामोश अपनी कुर्सी में धंसा अपने कमरे की इकलौती खिड़की से उसका डूबना देख रहा हूं. हाथ में William Dalrymple की City of Djinns है. आधी पढ़ चुका हूं. अच्छी किताब है.
बंगलोर का मौसम भी अब बदलना शुरु हो गया है. अब शाम की हवा में, बहुत थोड़ी ही सही, लेकिन हल्की-सी ठंड का एहसाह होता है. होठों पर शाम की चाय की हल्की सी तलब महसूस करता हूं. जी चाहता है, तुम्हें अभी आवाज़ लगाकर पुकारूं और चाय की फ़रमाईश करूं. अरे हां! तुम्हें तो ज़ोर से आवाज़ लगाकर बुलाने की भी ज़रुरत नही पड़ेगी. तुम भी तो वहीं होगी, खिड़की के पास ही. मुझे पता है तुम्हे खिड़की से बारिश देखना कितना पसंद है. और जब अभी बारिश रुकी हुई है, सारा मंज़र धुला धुला सा दिख रहा है. सामने के पेड़ पर नई पत्तियां आनी शुरू हो गई हैं. चाय की भीनी-सी खुशबू रसोइ से निकल कर धीरे धीरे चलकर मेरे पास आती है. तुम प्याला मेरी तरफ़ बढ़ाती हो और मैं प्याले के साथ तुम्हारी गोरी कलाई भी थाम लेता हूं.
'City of Djinns' फ़िर खोल ली है. कमरे में धीरे धीरे अंधेरा अपने पांव पसार रहा है. तुम होती तो कमरे की लाईट ऒन कर के अजीब सी निगाह से मुझे देखती. मेरे हाथों से किताब छीनकर टेबल पर रख देती और ज़ोर से (धीरे से कोइ बात तो तुम कहती ही नहीं हो, और वो भी तब, जब मैं तुम्हारे सामने हूं) कहती - ’इतनी रोमांटिक शाम में ये क्या अन-रोमांटिक सी बुक लिये बैठे हो. चलो ना! बाहर सड़क पर थोड़ी देर घूमते हैं.’ वैसे मैं भी बाहर जाना चाहता हूं लेकिन बैठा रहता हूं. चाहता हूं तुम मुझे पकड़ कर उठाओ जबरदस्ती ढकेलते हुये ले चलो...
उफ़्फ़!!! ये ख्यालों की बेलें भी बड़ी अज़ीब होती हैं. थोड़ी सी मन-माफ़िक़ हवा-पानी मिल जाये तो दिल के ज़मीन पर उग कर तुरंत ही पूरे ज़ेहन पे छा जाती हैं. फ़िर दिल और दिमाग, दोनों अलग-अलग जगह खड़े मिलते हैं. दिमाग के हर सवाल का दिल बस एक ही जवाब देता है - बस यूं ही.
काश! बस यूं ही...
और मैं चुपचाप अपनी कुर्सी में धंसा अपने कमरे की इकलौती खिड़की से सूरज का डूबना देख रहा हूं. आज वो भी उदास सा नज़र आ रहा है. शायद उसे भी पता है कि आज की शाम वो अकेला नहीं डूब रहा...
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बस यूं ही...
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11 comments:
कहाँ छुपाके रखे थे ये शब्द आपनेे ??!! ऐसा लगता है की किसी रोमांटिक नोवेल का सेड सा हिस्सा पढ़ रहे है... अहेसास का बहोत ही अच्छा फ्लो है आपके शब्दों में ..... आशा है आप के अहेसास ऐसे ही बहते रहे शब्द बनकर....
आपने बरबस ही गुलज़ार साहब की "चौरस रात" की याद दिला दी.. उस कहानी का हीरो अपनी चोकोर खिड़की से जब बाहर रात देखता है तो उसे चौरस रात नज़र आती है.. उसी खिड़की से वो आने जाने वालो को देइखहता है.. शाम को गिरते देखता है.. अपनी माशूक़ को देखता है.. आपके ख्याल भी उसी उड़ान में शामिल से लगे.. तहे दिल से शुक्रिया..
hmm...hmmmm..hmm ..haan ??? bahut achha shabd chitr...
bahut hi khubsurt andaz-e bayaan hai ....... aap ke is jaadui taane bane mein bahte bahte aise laga jaise hum bhi us suraj ki tarha in shabon mein dubte se ja rahe hain.....
KEEP WRITING :)
बेहतर. दिलचस्प. लिखते रहिये..शुभकामनयें.
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उल्टा teer
अच्छा लिखा है आपने. सूरज के डूबने में शामिल क्यों हो गए? निकल जाते उन के साथ बाहर सड़क पर एक रोमांटिक टहल के लिए.
यद उसे भी पता है कि आज की शाम वो अकेला नहीं डूब रहा...
माशा अल्लाह आप तो बड़े शायराना निकले....अंदाजे बयाँ बेहद खूबसूरत .....ओर किताब भी...
बढिया प्रयास है आपका, धन्यवाद । इस नये हिन्दी ब्लाग का स्वागत है ।
पढें हिन्दी ब्लाग प्रवेशिका
स्वागत है ।
मैं हिन्दी का हिन्दीतर ब्लॊगर हूँ ।
केरल के तिरुवनन्तपुरम में रहता हूँ,बीवी-बच्चों के साथ ।
hi ....very nice expression........and that book is grr8....
karoge yaad to her baat yaad aaegi!!
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